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Wednesday, August 25, 2010

इस तरह...

सोने न देगा.. चैन से....माहताब.. इस तरह....
क्यूँ खुल गया है..माज़ी का..हिज़ाब.. इस तरह...

उन गलियों में आना-जाना..कई दिनों से बंद है...
क्यूँ ...हो गए हो.. इश्क में...खराब इस तरह...

क्यूँ मेहका है बदन..बेह्का रुबाब.... इस तरह..
है बस गया क्यूँ...खून में..शराब इस तरह...

अब क्यूँ बे-बाक होकर.. मिलते हो गैरों से...
खुल जाएगा.. ग़म-ए-हिज्र का क़िताब... इस तरह...

मुस्कुरा के करते हो.. तीख़े सवाल "नीरज"..
क्यूँ उम्मीद है के मिल जाएगा... जवाब इस तरह...

हर एक दुआ के कहने पर...एक एक कर... कम होगा...
होगा तेरे... गुनाहों का... हिसाब इस तरह..

बस ऐसे ही..

Aashaon ke lehron par...naiyya chala rahe hain...
Dono.. Ek dusre ko.. Chu%!y@ bana rahe hain...

Nazron ke daayron mein..simte jaa rahe hain...
Behki Fusli baaton mein...lipte jaa rahe hain..

Aap hi kabhi hanste....aur kabhi roye jaa rahe hain..
Saari duniya bhoolkar..kar...ab to khoye jaa rahe hain..

Jaan.. Jaan.. Kehkar... Jee ko lubha rahe hain...
Apni Apni khaamiyon ko..kaise chhupa rahe hain..

Dono hasraton ke khwab... uljha rahe hain...
Dono... Ek doosre ko.. chu%!y@ bana rahe hain...

Obvious

Ek khwab ka janaaza hai...nigaah geeli hogi hi...
Baarishon ke mausam hain... Deewar seeli hogi hi...

Fazaan abhi nahaayi hai...zameen bhi saaf-saaf hain..
Ek ghazal ka aagaz hai...raat rangeeli hogi hi...

Ek zindagi ko jeene ko...ek baat kya kaafi nahin...
Yeh to sab maazi ki baatein hain....baat kasili hogi hi...

Tere khwabon ke darmayaan.. Masla-o- Makhta hai kya...
Dhadkan gungunaayegi...to saans surili hogi hi...

Jis par umr na chadti hai..Ek khwab sa mera maazi hai..
mere zaat ka woh rehnuma...toh zaat nasheeli hogi hi...

Thursday, August 12, 2010

ग़ुबार

आपकी बातों का मजमा...लहजे से मेरी छंट.ता ही नहीं....
अजीब सरफिरा ख्वाब है...आँखों से मेरी हट.ता.ही नहीं....

किस आवारा जिद पे अडा...काफिर जवान सा वक़्त है मेरा....
संवारता भी है..बिखरता भी है..बस कमबख्त कट.ता ही नहीं...

सुरूर है...खुमार है...बेज़ार है ...या..बीमार है...
जो भी है..आपका ही है....निशाँ भी है...मिट.ता ही नहीं...

मैं डब-डबा के रह गया...उन आखों की झील में...
रात फिसलकर बह गयी....चाँद है के बस..छूट.ता ही नहीं ...

मेरे नशे के जिस्म-ओ-जान...मेरे ख्वाब से भी बेहतर हैं...
यह टूटें तो टूट जाएँ...बदन कभी टूट.ता ही नहीं....

कहते न थे तुमसे "नीरज"...कुछ भी होगा जनाज़े पर...
क्या ना-मुराद सा फन है मेरा...लाख लुटाये लुट.ता ही नहीं....